कड़ी धूप में साया-आवर बहुत है मिरी माँ का आँचल है सर पर बहुत है हवस के लिए हैं ये ऐवान थोड़े क़नाअत को इक फूस का घर बहुत है वो सूरज है बे-शक मगर उस के आगे मिरा होना ज़र्रा बराबर बहुत है मुहाफ़िज़ है जो कारवाँ का हमारे उसी शख़्स से तो हमें डर बहुत है मुबारक हो कमख़ाब का तुम को बिस्तर हमें टाट की एक चादर बहुत है ऐ ईमान वालो ये नश्तर है पिन्हाँ कि अब ख़ैर के नाम पर शर बहुत है 'वफ़ा' दिल की तिश्ना-लबी के लिए तो बस इख़्लास का एक साग़र बहुत है