काग़ज़ी कश्तियाँ बनाते थे हम फ़रिश्तों के काम आते थे उस को देखा तो आज याद आया हम कभी सोग भी मनाते थे ख़्वाब फिरते थे आँख में शब-भर हम गली में सदा लगाते थे लोग हँसते थे इस लिए हम पर हम गिरी झंडियाँ उठाते थे अब तो हीरे तराशते हैं बस पहले हम भी ख़ुदा बनाते थे