किसी भँवर के घुमाव में आ सका ही नहीं तिरा हसीब समुंदर की मार था ही नहीं हमारे शहर में सहरा भी है पहाड़ी भी सो इस को छोड़ के जाने का मन किया ही नहीं तुम्हारे सदक़े क़बीले का ख़ूँ मुआ'फ़ किया जो राजपूतों ने बदला वहाँ लिया ही नहीं कि बार बार उसे चाक ही तो करना था सो अपना चाक-ए-गरेबाँ कभी सिया ही नहीं हमारे शेर किसी अजनबी को याद हुए हमारे यार ने पुर्सा कभी दिया ही नहीं