कह दे मन की बात तो गोरी काहे को शरमाती है शाम ढले तुझ को किस अपराधी की याद सताती है तुझ को मुझ से प्रेम है तू बेकल है मेरी चाहत में तेरी पायलिया की झन झन सारे भेद बताती है खोल के घूँघट के पट प्यार से करती है प्रणाम मुझे भोर भए जब नीर भरन को वो पनघट पर आती है बाँध गई है मुझ से ऐ दिल बंधन प्रीत की डोरी से गाँव की वो नार जो अपने जौबन पर इतराती है कुछ तो बता दो कौन है जो तेरे मनवा को लूट गया किस की ख़ातिर तो मअ'बद में दीप जलाने जाती है 'नासिर' रूह में घुल जाती है मस्त महक माधूरी की जब सखियों के संग वो नारी नदिया बीच नहाती है