कहाँ है वो तसलसुल रौशनी का यही मेआ'र है क्या दोस्ती का कोई अपनों से यूँ लड़ता नहीं है सबब कोई तो होगा बरहमी का यहाँ हाथों में अब सब के हैं पत्थर ख़ुलासा है यही दीवानगी का यक़ीनन मसअला कोई तो होगा यहाँ शोहरा बहुत है आप ही का बहुत से तजरबे होते रहे हैं कभी भी नाम मत लो दोस्ती का करूँगा ज़र्फ़ का सौदा न 'नश्तर' मैं जैसा हूँ रहूँगा आप ही का