कुछ नहीं अश्क-ए-नदामत के सिवा साइल के पास शर्म आती है मुझे जाते हुए क़ातिल के पास ऐ मिरी नादारी-ए-दिल ये बता दे तू मुझे नज़्र करने के लिए ले जाऊँ क्या क़ातिल के पास कर दिया मजबूर ऐसा शौक़ ने अरमान ने वाए नाकामी-ए-दिल जाना पड़ा क़ातिल के पास थी ज़रूरत ज़ख़्म-ए-दिल की हो गया हासिल मुझे और फिर रक्खा ही क्या है मा-सिवा क़ातिल के पास अपने दिल की क्या बताएँ कुछ नहीं हम को ख़बर होश ही खो बैठे अपने पोंह्च कर मंज़िल के पास इम्तिहान-ए-दिल से पहले बे-ख़ुदी ने खो दिया दूर था मंज़िल से या'नी पोंह्च कर मंज़िल के पास काट लेंगे ख़ुद-बख़ुद अपना गला हम शौक़ में क्या ग़रज़ है हम को क्यों जाते फिरें क़ातिल के पास राज़-ए-वहशत पूछते हो क्या हमारा 'राज़' तुम बारहा लौट आए हैं जा जा के हम क़ातिल के पास