कहते नहीं हैं हाल किसी राज़दाँ से हम वाक़िफ़ हुए हैं जब से फ़रेब-ए-जहाँ से हम आएगी फिर न सहन-ए-चमन में कभी बहार उठ कर चले गए जो कहीं गुल्सिताँ से हम मंज़िल तमाम उम्र हमें ढूँढती रही शायद बिछड़ गए थे रह-ए-कारवाँ से हम गर्दिश ने जिस की हम को फ़साना बना दिया टकराए बार बार उसी आसमाँ से हम पाई दिल-ओ-निगाह ने इस जा से 'रौशनी' सर किस तरह उठाएँ तिरे आस्ताँ से हम