मा'लूम नहीं कौन सी बस्ती के मकीं थे कुछ लोग मिरी सोच से भी बढ़ के हसीं थे अब मुझ को वो इक पल भी मयस्सर नहीं होते अर्बाब जो मसनद पे यहीं तख़्त-नशीं थे ये बात अजब है कि हमारा न हुआ तू क्या हम न तिरे अहद के ताबिंदा नगीं थे अफ़्सोस उसे प्रेम का इक लफ़्ज़ नहीं याद क़िस्से मिरी चाहत के जिसे ज़ेहन-नशीं थे अब भूल चुके अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल तो क्या है हम लोग किसी दौर में हद-दर्जा ज़हीं थे पढ़ता हूँ बहुत शौक़ से पुरखों के फ़साने मुफ़्लिस थे मगर गाँव की इज़्ज़त के अमीं थे