कौन अब उन की अंजुमन में नहीं चुप हैं जैसे ज़बाँ दहन में नहीं अपने आबा में थी रवादारी अब वो मेरे तिरे चलन में नहीं माल-ओ-ज़र को कहाँ छुपाओगे जेब जब आप के कफ़न में नहीं दो घड़ी का सुकूँ ख़रीद सके ऐसी ताक़त तुम्हारे धन में नहीं सब्र का फल कहाँ मिलेगा तुझे सब्र का पेड़ ही चमन में नहीं बात जो हक़ की बरमला कह दे वो ज़बाँ ही किसी दहन में नहीं जिस को बू-ए-वफ़ा भी कहते थे वैसी ख़ुशबू तो अब वतन में नहीं हम हुनर कह सकें जिसे यारो हम में है वो हमारे फ़न में नहीं अब तो अपने तईं भी ऐ 'राहत' कोई रंजिश हमारे मन में नहीं