कहीं कहीं से मोहब्बत वसूल होने लगी दुआ जो की ही नहीं थी क़ुबूल होने लगी मैं बैठे बैठे यूँ ही रक़्स पर उतर आया फिर एक आन में दुनिया ये धूल होने लगी अब एक जैसे तो होते नहीं सभी मंज़र कहीं पे ख़ुश तो कहीं वो मलूल होने लगी मैं एक बार उधर भूल कर चला गया था फिर उस के बा'द मुसलसल ये भूल होने लगी अब अपने बीच यही ख़ामुशी ही बेहतर है कि गुफ़्तुगू तो हमारी फ़ुज़ूल होने लगी ये बाग़ दश्त में तब्दील हो रहा है 'हसन' जो शाख़-ए-फूल थी पहले बबूल होने लगी