कहीं निगाह कहीं लब कहीं ज़बाँ होगा ग़ज़ल कहो न कहो इश्क़ तो बयाँ होगा हुदूद-ए-दर्द के आगे न काएनात न ज़ात कहीं ज़मीन न होगी तो आसमाँ होगा बदल के रख दे जो तक़दीर-ए-संग-ओ-ख़िश्त इक दिन न जाने कौन से घर में वो ग़म जवाँ होगा हरम में दैर में मयख़ाने में ख़राबे में जहाँ भी जाइए इक शख़्स दरमियाँ होगा वो एक बात कि डरते हैं उन से कहते हुए उस एक बात का चर्चा कहाँ-कहाँ होगा