कहीं पे गर्द कहीं पर हवा बनाती हूँ मैं ख़ुद को अब तो बस अपने सिवा बनाती हूँ कहीं पे तारे कहीं पर हैं आस के जुगनू ख़िज़ाँ में भी मैं गुलों की फ़ज़ा बनाती हूँ बिखर गए थे किसी नाम के हुरूफ़ कहीं अब उन को जोड़ कर इक आइना बनाती हूँ ये तय है उस को अगर लौट कर नहीं आना तो किस लिए मैं दुआ को असा बनाती हूँ उजालता है ये तारीकियाँ मिरे दिल की तुम्हारी याद को हर पल दिया बनाती हूँ जब अपने अश्क छुपाती हूँ मुस्कुराहट से तो अपने दर्द को अपनी दवा बनाती हूँ तराश कर किसी पत्थर के एक पैकर को कमाल-ए-इश्क़ से उस को ख़ुदा बनाती हूँ कि ख़्वाब में रहे ता-देर गुफ़्तुगू तुझ से ज़रा सी बात को मैं वाक़िआ' बनाती हूँ सुना था मैं ने जो 'शाहीन' एक लम्हे को इस एक लम्हे को अपनी सदा बनाती हूँ