कहीं पे माल-ओ-दुनिया की ख़रीदार की बातें हैं कहीं पे दिन-ब-दिन बढ़ती रिया-कारी की बातें हैं भरे बाज़ार में सच की दुकानों पर है सन्नाटा तिजारत झूट की चमकी है मक्कारी की बातें हैं कहीं रोज़े पे रोज़े सिर्फ़ पानी पी के खुलते हैं कहीं बस नाम पे रोज़ों के इफ़्तारी कि बातें हैं कहीं खाना ही खाना है मगर पीने से कब फ़ुर्सत कहीं पे भूक की बस्ती में बीमारी कि बातें हैं ज़माने और थे वो जिन में कुछ दरवेश होते थे नए इस दौर में हर सम्त बद-कारी की बातें हैं वफ़ा ईसार क़ुर्बानी वहाँ अब लोग क्या जानें जहाँ नीलाम होते ज़र्फ़-ओ-ख़ुद्दारी की बातें हैं कभी मज़हब था दिल में अब है दौलत की पनाहों में ख़ुदा का नाम ले कर भी गुनहगारी की बातें हैं किसी के ज़ख़्म पे मरहम 'हिना' रखता नहीं कोई नमक लहजों ने घोला क़ल्ब-आज़ारी की बातें हैं