कहीं पे रिज़्क़ कहीं पर है घर परिंदों का हज़ारों मील है लम्बा सफ़र परिंदों का कहीं चटानों पे डाली पे और छतों में भी कहाँ कहाँ नहीं रहता है घर परिंदों का सुहानी सुब्ह न होती न होती शाम हसीं वजूद दुनिया में होता न गर परिंदों का ये जोड़ लेते हैं तिनकों से किस तरह तिनके समझ सका न कोई भी हुनर परिंदों का लिखा है जितना मुक़द्दर में रिज़्क़ खाते हैं न जाने क्यों है किसानों को डर परिंदों का शिकारी ताक में बैठे हैं जाल फैलाए इधर ख़ुदा न करे हो गुज़र परिंदों का सुकून-ओ-अम्न हो क़ाएम जहाँ में फिर 'साहिल' ऐ काश ले ले अब इंसाँ असर परिंदों का