खुल कर न सर-ए-आम हो इज़हार भले ही है बुग़्ज़ करें हम से वो इंकार भले ही बच्चों ने तो आपस में नहीं खेलना छोड़ा आँगन में उठाई गई दीवार भले ही फैलाया न हाथों को कभी आगे किसी के हर वक़्त मसाइल से हूँ दो-चार भले ही मस्जिद की शहादत में रही ये भी मुलव्विस करती रहे इंकार ये सरकार भले ही दौलत ही झुका पाई न क़ानून ही उस को फ़ाक़ों से मरा है वो क़लमकार भले ही है सच्चा परस्तार वो उर्दू का ऐ 'साहिल' है एक रिसाले का ख़रीदार भले ही