कहीं सानेहे मिलेंगे कहीं हादिसा मिलेगा तिरे शहर की फ़ज़ा से मुझे और क्या मिलेगा कोई संग तोड़ने है सर-ए-राह-ए-ज़िंदगानी मैं हर इक से पूछता हूँ कहीं आइना मलेगा तिरी जान बख़्श देना मिरी मस्लहत का जुज़ है मिरे क़ातिलों से इक दिन तिरा सिलसिला मिलेगा मिरे क़त्ल की हक़ीक़त न छुपा सकेगा कोई मिरे क़ातिलों के घर में मिरा ख़त जला मिलेगा मैं भँवर में जब फँसा था ये सदा दी उस ने 'अम्बर' तिरी नाव है भँवर में तुझे ना-ख़ुदा मलेगा