कहो किस तरह हों क़ाइल सुकून-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर के ज़रा जुम्बिश हुई पैदा हुए आसार महशर के फिरी हैं आ कि सहर-आफ़रीं नज़रें ये क्या कर के अभी तो जान सी आई थी उम्मीदों में मरमर के फ़लक ने जिस क़दर पैदा किए अंदाज़ महशर के करिश्मे हैं वो सब तेरी अदा-ए-फ़ित्ना-परवर के तबस्सुम में भी दिल ग़म की झलक पहचान लेता है ये दर्द-ओ-ग़म अज़ल से रहने वाले हैं इसी घर के हमारी इंतिहा-ए-ना-तवानी हद्द-ए-मंज़िल है सलामत लर्ज़िश-ए-पा कौन ले एहसान रहबर के किसे मालूम हुस्न-ए-जल्वागर की कार-फ़रमाई नज़र किस से मिलाते देखने वाले नज़र भर के मिरे ज़ब्त-ए-अलम ने ताब-ए-गोयाई न दी मुझ को सुनाता अहल-ए-आलम को फ़साने ज़िंदगी भर के ज़बाँ कटती है जिस दर पर सदा देते दुआ देते गदा कहलाते हैं 'हिरमाँ' हम उस बेदर्द के दर के