कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो सितम-ईजाद हो फिर क्यूँ सितम ईजाद न हो नहीं पैमान-ए-वफ़ा तुम ने नहीं बाँधा था वो फ़साना ही ग़लत है जो तुम्हें याद न हो तुम ने दिल को मिरे कुछ ऐसा किया है नाशाद शाद करना भी जो अब चाहो तो ये शाद न हो जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद जिस को आज़ाद करो तुम कभी आज़ाद न हो मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से उन को अंदेशा कि ये भी कोई फ़रियाद न हो मैं न भूलूँ ग़म-ए-इश्क़ का एहसाँ 'वहशत' उन को पैमान-ए-मोहब्बत जो नहीं याद न हो