कैसे आ पहुँची है गुलशन की हवा ज़िंदाँ में दिल का जौ ज़ख़्म था इक फूल बना ज़िंदाँ में ऐसा दिल-कश था कि थी मौत भी मंज़ूर हमें हम ने जिस जुर्म की काटी है सज़ा ज़िंदाँ में मैं गुलिस्ताँ में भी तन्हा था मगर याद तो थी कैसा बे-यार-ओ-मदद-गार हुआ ज़िंदाँ मैं मैं नय तंहाई से तंग आ के उसे याद किया अब मिरे साथ ही रहता है ख़ुदा ज़िंदाँ में वो जो गुलशन में मिरे ग़म का मुदावा न हुआ चाँद निकला तो उसे याद किया ज़िंदाँ में आज जब आँख खुली है तो फ़ज़ा है ख़ामोश सुब्ह-दम कौन सू-ए-दार गया ज़िंदाँ में