कैसे कड़कती धूप से छाँव में आ गया मैं सटपटा के शहर से गाँव में आ गया अब इस से अगे और तमाशा बनूँगा क्या मैं जंग-जू था ख़्वाजा-सराओं में आ गया ऐसे ही जैसे चीज़ हो कोई गिरी-पड़ी सूरज किसी ग़रीब के पावँ में आ गया मेरी नहीं ये मेरे सितारों की चाल थी सहरा-नशीन उठ के ख़लाओं में आ गया परवरदिगार ये तेरी क़ुदरत का फ़ैज़ है तख़्लीक़ का कमाल भी माओं में आ गया क्या छू लिया है उस ने ज़रा सा गुलाब को खिलता हुआ गुलाब अदाओं में आ गया दिल मुँह के बल गिरा है यही सोच सोच कर सर था मगर धड़ाम से पाँव में आ गया जब तक था एक रब की रईयत में ख़ुश रहा 'मसऊद' फिर मैं इतने ख़ुदाओं में आ गया