कैसी आशुफ़्ता-सरी है अब के कुछ अजब बे-ख़बरी है अब के देख कर अहल-ए-गुलिस्ताँ का चलन जान हाथों में धरी है अब के शहर का अम्न-ओ-सुकूँ है अन्क़ा कैसी ये फ़ित्नागरी है अब के मौसम-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ है फिर भी शाख़-ए-दिल अपनी हरी है अब के कोर चश्मों को ख़ुदा ही समझे दा'वा-ए-दीदा-वरी है अब के डर यही है कि कहीं टूट न जाए शाख़ फूलों से भरी है अब के पिछले सालों से ज़ियादा ऐ 'शौक़' रंज-ए-बे-बाल-ओ-परी है अब के