कुछ हुनर और समझते हैं न फ़न जानते हैं हम तिरे ज़िक्र को शायान-ए-सुख़न जानते हैं रूह की ग़ायत-ए-उलवी का न हो अंदाज़ा हम मगर मक़्सद-ए-तख़्लीक़-ए-बदन जानते हैं इस्तिआ'रे हैं तिरे आरिज़-ओ-चश्म-ओ-लब के ये हदीस-ए-गुल-ओ-शहला-ओ-समन जानते हैं ये अलग बात नहीं आई ज़माना-साज़ी हम मगर ख़ूब ज़माने का चलन जानते हैं रक़्स ज़ंजीर के आहंग पे होता है सिवा रम्ज़ लेकिन ये कहाँ ज़मज़मा-ज़न जानते हैं बाग़बाँ भी है तसर्रुफ़ में शरीक-ए-गुलचीं इस हक़ीक़त को कोई अहल-ए-चमन जानते हैं लफ़्ज़-ओ-तख़ईल को जो कर न सके हम-आहंग 'शौकत' उस शख़्स को हम फ़ारिग़-ए-फ़न जानते हैं