कैसी बख़्शिश का ये सामान हुआ फिरता है शहर सारा ही परेशान हुआ फिरता है कैसा आशिक़ है तिरे नाम पे क़ुर्बां है मगर तेरी हर बात से अंजान हुआ फिरता है हम को जकड़ा है यहाँ जब्र की ज़ंजीरों ने अब तो ये शहर ही ज़िंदान हुआ फिरता है शब को शैतान भी माँगे है पनाहें जिस से सुब्ह वो साहिब-ए-ईमान हुआ फिरता है जाने कब कौन किसे मार दे काफ़िर कह के शहर का शहर मुसलमान हुआ फिरता है