किसी ने एक जफ़ा-ए-करम-नुमा कर के डुबो दिया मुझे साहिल से आश्ना कर के ग़ुबार-ए-राह को मग़रूर-ए-इर्तिक़ा कर के गया है कौन ज़मीं को फ़लक-नुमा कर के उमीद-ए-जश्न-ए-चराग़ाँ भी छिन गई हम से कहीं के हम न रहे बर्क़ को ख़फ़ा कर के ये वक़्त है कि जफ़ाओं को मर्हबा कहिए हमेशा काम निकलता नहीं गिला कर के बड़े सलीक़े से बदनाम कर दिया तुम को हमारा ज़िक्र रक़ीबों ने जा-ब-जा कर के अज़ान-ए-सुब्ह से टूटा ग़मों का सन्नाटा गुज़र गई शब-ए-हिज्राँ ख़ुदा ख़ुदा कर के मिरे रफ़ीक़ ये तहसीन-ए-ना-शनास कहीं तुझे न छोड़ दे आवारा-ए-अना कर के शुरूअ' कब हो न जाने नज़ाकतों का सफ़र मैं दिल को बैठा हूँ शायान-ए-नक़्श-ए-पा कर के तुम उन से करते हो क्या ज़िक्र-ए-ज़िंदगी 'जौहर' जो साँस रोक लें अंदेशा-ए-फ़ना कर के