कल तलक क़ाने रहा जो गर्दिश-ए-तक़दीर पर मुस्तइद है आज वो आफ़ाक़ की तस्ख़ीर पुर शोर-ओ-ग़ुल में शहर के उस की सदा भी खो गई नाज़ था जिस को कि अपने नुत्क़ की तासीर पर जो भरी महफ़िल के दिल में रौशनी फैला गई वो ख़फ़ा है आज तक मेरी इसी तक़रीर पर और जब वो ले सका मुझ से न कोई इंतिक़ाम डाल दी इक ख़ाक की मुट्ठी मिरी तस्वीर पर अपने ही जज़्बात के आगे न कुछ उस की चले वो जो क़ादिर है ख़लाओं की कठिन तस्ख़ीर पर क्यूँ न दूँ मैं दूसरों को रतजगे का मशवरा मैं कि ख़ुद नादिम हूँ अपने ख़्वाब की ता'बीर पर जब से लिखा है क़सीदा मैं ने उस की शान में रश्क सा आने लगा उस को मिरी तहरीर पर आख़िरश वो ज़ीनत-ए-आग़ोश-ए-गुम-नामी हुआ वो जो ख़ुश होता था अपनी खोखली तश्हीर पर किस तरह 'बेताब' उस ने छू लिए बरबत के तार हाथ जो रखा हुआ था क़ब्ज़ा-ए-शमशीर पर