काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें उस बेवफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें मुझ को ये ए'तिराफ़ दुआओं में है असर जाएँ न अर्श पर जो दुआएँ तो क्या करें इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम नाज़िल हों दिल पे रोज़ बलाएँ तो क्या करें ज़ुल्मत-ब-दोश है मिरी दुनिया-ए-आशिक़ी तारों की मिशअले न चुराएँ तो क्या करें शब भर तो उन की याद में तारे गिना किए तारे से दिन को भी नज़र आएँ तो क्या करें अहद-ए-तरब की याद में रोया किए बहुत अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें वो बार बार याद जो आएँ तो क्या करें वअ'दे के ए'तिबार में तस्कीन-ए-दिल तो है अब फिर वही फ़रेब न खाएँ तो क्या करें तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मोहब्बत सही मगर मिलने लगें वफ़ा की सज़ाएँ तो क्या करें