सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती ज़रा तुम ने निगाह-ए-नाज़ को तकलीफ़ दी होती मक़ाम-ए-आशिक़ी दुनिया ने समझा ही नहीं वर्ना जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती तुम्हारी आरज़ू क्यूँ दिल के वीराने में आ पहुँची बहारों में पली होती सितारों में रही होती ज़माने की शिकायत क्या ज़माना किस की सुनता है मगर तुम ने तो आवाज़-ए-जुनूँ पहचान ली होती ये सब रंगीनियाँ ख़ून-ए-तमन्ना से इबारत हैं शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती रज़ा-ए-दोस्त 'क़ाबिल' मेरा मेयार-ए-मोहब्बत है उन्हें भी भूल सकता था अगर उन की ख़ुशी होती