ख़ुद ही अपना राज़ ख़ुद ही राज़दाँ बन जाऊँगा एक लम्हे का यक़ीं हूँ फिर गुमाँ बन जाऊँगा हर्फ़ की सूरत ज़बाँ पर एक बार आने तो दो देखते ही देखते मैं दास्ताँ बन जाऊँगा इब्तिदा में इक अलामत था गुज़रते वक़्त की इंतिहा तक अगले वक़्तों का निशाँ बन जाऊँगा जब तराशा जा रहा था ज़ेहन में मेरा बदन किस ने सोचा था कि मैं सूना मकाँ बन जाऊँगा होते होते वहम में तहलील हो जाओगे तुम और मैं भी एक सई-ए-राएगाँ बन जाऊँगा 'हैरत' ऐसा ही मशिय्यत का है शायद क़ाएदा झिलमिलाती लौ से उभरा हूँ धुआँ बन जाऊँगा