करोड़ों साल का देखा हुआ तमाशा है ये रक़्स-ए-ज़ीस्त कि बे-क़स्द-ओ-बे-इरादा है अजीब मौज-ए-सुबुक-सैर थी हवा-ए-जहाँ गुज़र गई तो कोई नक़्श है न जादा है नशात लम्हे की वो क़ीमतें चुकाई हैं कि अब ज़रा सी मसर्रत पे दिल लरज़ता है अकेला मैं ही नहीं ऐ तमाशा-गाह-ए-जहाँ जो सब को देख रहा है वो ख़ुद भी तन्हा है उसी से रिश्ता-ए-दिल दिल उसी रू-गर्दां उसी को ढूँड रहा हूँ उसी से झगड़ा है