करूँगा ज़िंदगी में ख़ल्क़-आश्ना हो कर सवाद-ए-संग-ए-जहाँ में इक आइना हो कर ख़िज़ाँ का दौर है और दिल में आरज़ू ये है कि मैं गुलाब खिलाता फिरूँ सबा हो कर ये चुप का शहर मिरे साथ जो सुलूक करे मैं चुप के शहर में ज़िंदा रहूँ सदा हो कर जो हश्र तक रहा दुनिया में तीरगी का समाँ तो हश्र तक मैं रहूँगा चराग़-पा हो कर मिरे सुकूत-ओ-सदा के शरीक हो जाओ रह-ए-हयात से गुज़़रेंगे क़ाफ़िला हो कर फ़ना का शहर है ये ज़ीस्त का जहाँ 'बेदी' यहाँ मरो भी तो पैग़म्बर-ए-बक़ा हो कर