कश्कोल-ए-जाँ से सिक्का-ए-नफ़रत निकाल कर ऐ दोस्त फिर से आ के मरासिम बहाल कर चाहा था उम्र-भर तुझे पल में भुला दिया तू ने ही तो कहा था कि कोई कमाल कर ये दर्द का सफ़र है बहुत दूर जाएगा उम्र-ए-रवाँ अभी से न मुझ को निढाल कर दुनिया को क्या ख़बर कि गुज़रती है हम पे क्या लिखते हैं शेर अपने लहू को उबाल कर इस शहर का तो है यही दस्तूर-ए-ज़िंदगी बस ख़ामुशी से देख न कोई सवाल कर माना कि शायरी है असासा तिरा 'अमीन' घर की ज़रूरियात का कुछ तो ख़याल कर