कौन देखेगा ज़माने इन्क़िलाब-ए-नाज़ के भूल बैठे हैं वो वादे इश्क़ के आग़ाज़ के होते हैं तीर-ए-सितम सर चाहने वालों पे अब ये नए अंदाज़ देखे ग़म्ज़ा-ओ-ग़म्माज़ के मेरे आह-ओ-नाले को ज़ालिम समझ नादाँ न बन साज़ के नग़्मे नहीं ये हैं शिकस्त-ए-साज़ के बाल-ओ-पर अब तक बंधे हैं हूँ मुक़य्यद ता-हनूज़ हुक्म सादिर हो चुके हैं गो मेरी पर्वाज़ के इश्क़-ए-दीं हुब्ब-ए-वतन ज़ौक़-ए-अमल पास-ए-वफ़ा जौहर-ए-इंसानियत हैं ये किसी दम-साज़ के इस ख़राब-आबाद की तंज़ीम कुछ आसाँ न थी मो'जिज़े हैं ये मसीहा-दम तेरे अंदाज़ के साज़-ए-हस्ती तेरी इक आवाज़ से था नग़्मा-कार मुंतज़िर दीवाने दिल हैं दूसरी आवाज़ के चार कलियों के सहारे है गुलिस्ताँ का क़याम ज़ाहिरन जो गुल हैं वर्ना ख़ार हैं ए'जाज़ के गो ग़नीमत पंजा-ए-अग़्यार के छुटना सही क्यूँ मगर हम सैद हों चश्म-ए-ज़माना-साज़ के इंक़लाब इक अपने हक़ में और भी आने को है ये मआ'नी हैं हक़ीक़त में नवा-ए-राज़ के ज़ुल्म पर तुम ज़ुल्म ढाओ हम न खींचें आह तक वाह क्या कहिए तुम्हारे इश्वा-ओ-अंदाज़ के हिन्द में क़ाएम रहे दाइम बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ ये दुआ लब पर हो हर 'गुलज़ार' के दम-साज़ के