कौन हक़ पे है कौन बातिल है फ़ैसला ये बड़ा ही मुश्किल है रू-ए-ताबाँ तुम्हारा कामिल है आइना कब तुम्हारे क़ाबिल है कितनी बेचैनियाँ समेटे हुए कितनी ख़ामोश मौज-ए-साहिल है मेरी तुर्बत पे आ के रोता है कैसा ज़ालिम ये मेरा क़ातिल है अब चराग़ों पे बस नहीं चलता कौन आँधी के अब मुक़ाबिल है जिस को मैं ने मसीहा समझा था आज़मा कर मुझे वो क़ाइल है 'शाद' मानो या फिर नहीं मानो मौत ही ज़िंदगी की मंज़िल है