कौन करता सर-ए-दरबार हिमायत मेरी तख़्ता-ए-दार पे खींची गई जुरअत मेरी घर पड़ोसी के मिरे आज भी चूल्हा न जला मस्जिदों में रही महदूद इबादत मेरी मेरा क़ातिल मिरा सर ले के भी शादाँ न हुआ सर नहीं उस को तो मक़्सूद थी बै'अत मेरी मेरे टूटे हुए पर देख के हँसने वालो मैं उड़ूँगा अभी टूटी नहीं हिम्मत मेरी एक से चेहरे यहाँ एक सी आवाज़ें हैं ऐसी बस्ती में है पहचान सलामत मेरी मैं ने गहराइयाँ नापी हैं समुंदर की मियाँ तुम ने बे-मोल ख़रीदी है महारत मेरी वज़्अ'-दारी तो मिरे ख़ून में शामिल है 'ज़मीर' अब ज़मीनें हैं न जागीर न दौलत मेरी