कौन वो बातें सुनता है जो फ़स्ल-ए-जुनूँ के बाब में हैं किस किस को बेदार करूँ सब सूरज मेरे ख़्वाब में हैं बिफरे पानी की मौजें हर घर की छत पे रक़्साँ हैं ख़ैर मनाऊँ किस किस की सब शहर मिरे सैलाब में हैं चूना-गच दीवारों में झाँको तो ख़राबे पाओगे मेरी तरह कितने ही यहाँ सुक़रात मिरे अहबाब में हैं किस कूफ़ी ने ख़त के पहरे लगाए हैं पढ़ती आँखों पर कितने ही मफ़्हूम अभी तक लफ़्ज़ों के गिर्दाब में हैं जिन सदमों से गुज़रे हैं ये कब के टूट गए होते यूँ लगता है जैसे कोई फ़ौलाद मिरे आ'साब में हैं पत्थर-देस में किस को सुनाए जा के कोई फ़रियाद अपनी जाने कितने हश्र बपा 'फ़ारिग़' के दिल-ए-बेताब में हैं