क़ुर्बतों के दरमियाँ भी फ़ासला बाक़ी रहा एक इस्बात-ओ-नफ़ी का सिलसिला बाक़ी रहा हर दुआ-ए-मुस्तहब कल के लिए रख दी गई और होंटों पर कसीला ज़ाइक़ा बाक़ी रहा पत्थरों की सब लकीरें धीरे धीरे मिट गईं नोक-ए-मिज़्गाँ से मगर लिक्खा हुआ बाक़ी रहा मंज़िलों की सम्त रोज़-ओ-शब यूँ ही चलते रहे रास्ते कटते गए और फ़ासला बाक़ी रहा अब सफ़ीने का पता गिर्दाब ही शायद कहे नाख़ुदा ग़ाएब हुआ नाम-ए-ख़ुदा बाक़ी रहा इस क़दर चाहा कि उस को दे दिया सब कुछ 'शमीम' फिर भी मेरे मैं का मुझ में इक नशा बाक़ी रहा