कौसर की हलावत है मिरी तिश्ना-लबी में मसरूफ़ हूँ मैं मद्ह-ए-रसूल-ए-अरबी में तन्हाई में दम-साज़ है उस मह का तसव्वुर क्यों मौज-ए-ज़िया हो न मिरी तीरा-शबी में है हुस्न भी अख़्लाक़ भी रहमत भी करम भी मक्की मदनी हाशमी-ओ-मुत्तलबी में हर हुस्न का महवर है वो इक ज़ात-ए-मुक़द्दस हर इल्म का जौहर है इक उम्मी अरबी में हर ज़र्रा नज़र आता है ख़ुर्शीद-बदामाँ जल्वे हैं अजब से मिरे आक़ा की गली में किस आँख ने देखा है कोई आप का हम-सर किस को है कलाम आप की आली-नसबी में ऐ चश्म-ए-करम तेरी मसीहाई के क़ुर्बां कुछ फ़र्क़ है शायद मिरी दरमाँ-तलबी में 'आज़म' बड़ी ने'मत है ये रोना ये तड़पना हर दर्द का दरमाँ है इस आह-ए-सहरी में