क़याम में भी किसी राह पर रवाना था मिरा मिज़ाज अज़ल से मुसाफ़िराना था पड़ा था उस के भी रुख़ पर नक़ाब-ए-ना-मौजूद मिरी भी आँख पे इक दस्त-ए-ग़ाएबाना था हम अपनी रूह तिरे जिस्म ही में छोड़ आए तुझे गले से लगाना तो इक बहाना था तिरे हुसूल की बाज़ी भी कितनी मुश्किल थी इधर मैं यक्का-ओ-तन्हा उधर ज़माना था मैं उस को देखता रहता था उस की आँखों से ख़याल-ओ-ख़्वाब का मौसम बड़ा सुहाना था