ख़बर सुनते तो हैं उस संग-दिल के दिल में आने की ख़ुदा मालूम क्या सूरत बने आईना-ख़ाने की न जाने ख़ाक हो जाने की लज़्ज़त कब मयस्सर हो अभी तो एक मुद्दत से है ख़िदमत ख़ाक उड़ाने की ज़मीन-ओ-आसमाँ कुछ हों तो हो पस्ती बुलंदी भी यहाँ तो रोज़ कैफ़िय्यत बदलती है ज़माने की सहारा इश्क़-ए-ज़ोर-आवर ने ख़ुद ही दे दिया वर्ना कहाँ हम और कहाँ ताक़त ये कोह-ए-ग़म उठाने की फ़ना-आहंग शायद साज़-ए-हस्ती से बरामद हो कि आती है सदा तार-ए-नफ़स से झनझनाने की