ख़दशा-ए-बर्क़-ओ-शरर याद आया मैं जहाँ भी गया घर याद आया बस तिरा हाथ रहा याद मुझे संग याद आया न सर याद आया हर क़दम पर था निशान-ए-मंज़िल तेरे हमराह सफ़र याद आया अश्क-ए-ख़ुर्शीद कहा था तुझ को तू बहुत वक़्त-ए-सहर याद आया दिल मिरा बहर-ए-अलम में डूबा जब तिरा दीदा-ए-तर याद आया था मिरे सर में वफ़ा का सौदा नफ़ा याद आया ज़रर याद आया इस क़दर ग़म पे न सोचो ऐ 'ख़लिश' क्या करोगे वो अगर याद आया