ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं नए शगूफ़े खिलाओ बहार के दिन हैं उलट दो तख़्ता ख़िज़ाँ की तबाह-कारी का बिसात-ए-ऐश बिछाओ बहार के दिन हैं एज़ार-ए-गुल की दहक से जला के काँटों को लगी दिलों की बुझाओ बहार के दिन हैं मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल कोई शराब बनाओ बहार के दिन हैं भरे कटोरे चमन के ये दर्स देते हैं छलकते जाम लूंढाओ बहार के दिन हैं अब एहतियात-पसंदी है सई-ए-ना-मशकूर मता-ए-ज़ब्त लुटाओ बहार के दिन हैं शरार-ए-गुल से ज़माने में शोले भड़का दो हसीन फ़ित्ने जगाओ बहार के दिन हैं जुनून-ए-शौक़ की बे-ए'तिदालियों के ख़िलाफ़ कोई दलील न लाओ बहार के दिन हैं पुरानी शमएँ बुझा दीं सबा के झोंकों ने नए चराग़ जलाओ बहार के दिन हैं लचक रही है वफ़ूर-ए-समर से शाख़-ए-हयात ये बार हँस के उठाओ बहार के दिन हैं जनाब-ए-अख़तर-ए-जाँ-दादा-ए-रुख़-ए-गुल को इमाम-ए-वक़्त बनाओ बहार के दिन हैं