ख़ैर से फ़र्ज़ कुछ अदा तो हो जिस से राज़ी तिरा ख़ुदा तो हो अब्र-ए-रहमत को जोश आ जाए लब पे ऐसी कोई दुआ तो हो रू-ब-रू होगी ख़ुद-बख़ुद मंज़िल गामज़न कोई क़ाफ़िला तो हो छू तो लूँगा बुलंदियों को मगर दिल में पुर-जोश वलवला तो हो दर्द से आश्ना हुए तो क्या दर्द से दिल भी आश्ना तो हो हम तो तस्लीम कर ही लें लेकिन हक़-ब-जानिब वो फ़ैसला तो हो ज़ब्त-ए-ग़म के ही वास्ते ऐ 'नवाज़' कोई भरपूर क़हक़हा तो हो