ख़ाक हो जाना है इक दिन किसे इंकार कभी ज़िंदगी फिर भी नहीं मूजिब-ए-आज़ार कभी वक़्त की क़ैद से है मावरा फ़न की दुनिया मुझ को मरने नहीं देंगे मिरे अशआ'र कभी चैन से जीने की तौफ़ीक़ जिसे मिल जाए कब वो पढ़ता है मियाँ भूले से अख़बार कभी अब तो बस उड़ती हैं आ'माल-ए-ख़िरद की चीलें अब किसी सर पे लटकती नहीं तलवार कभी जुस्तुजू-केश जुनूँ के लिए ऐ शैख़-ए-हरम चाहता क्या है ख़ुदा कब है ये असरार कभी दो अलग चीज़ें हैं ता'मीर कि तक़्सीम 'आसिम' एक सी उठती नहीं दोनों की दीवार कभी