समझने से सिवा समझाने का सब को जुनूँ क्यों है लबों पर तंज़ के कलमात हैं आँखों में ख़ूँ क्यों है जो बस ज़ख़्म-ए-बरूँ को भरने से रखते हैं दिलचस्पी उन्हें हम कैसे बतलाएँ हमें सोज़-ए-दरूँ क्यों है रवादारी जो सुनने की थी अब वो भी नहीं बाक़ी मिरे सीने में जो तकलीफ़ है कैसे कहूँ क्यों है इसी तफ़्हीम से महरूमी का हासिल है ये मंज़र मुझे बेचैनियाँ क्यों हैं तुम्हें इतना सुकूँ क्यों है हमारे रोज़-ओ-शब जब सब हक़ीक़त हैं तो फिर 'आसिम' कोई रुख़ हो हमारी सोच का महवर फ़ुसूँ क्यों है