ख़ाकसारों से क़रीं रहता है आसमाँ ख़ाक-नशीं रहता है है अजब ख़ू-ए-फ़क़ीराना भी इक जहाँ ज़ेर-ए-नगीं रहता है वज्ह दुनिया भी है फ़ितरत भी है कोई ख़ुश कोई हज़ीं रहता है बाग़-ए-गुल-गश्त-ए-सबा दिल को बना नख़्ल-ए-सरसब्ज़ यहीं रहता है घर का सामाँ नहीं वीराने में शहर में ख़ौफ़-ए-मकीं रहता है आँखों आँखों में तो कट जाती है रात दर्द फ़र्ख़न्दा-जबीं रहता है कज-अदा ऐसा नहीं है वो भी बोझ इक दिल पे कहीं रहता है गो कोई वज्ह-ए-तअल्लुक़ भी नहीं मैं कहीं ध्यान कहीं रहता है