ख़त देखिए दीदार की सूझी ये नई है वैफ़र की जगह आँख लिफ़ाफ़े पे लगी है ख़ाकिस्तर-ए-तन ख़ैर हो बर्बाद हुई है उड़ती ये ख़बर गर्द-ए-परीदा से सनी है हम-ख़्वाबी-ए-जानाँ मिरी क़िस्मत में लिखी है सोते में ज़ुलेख़ा की तरह आँख लगी है लौ इश्क़ की वो है कि पतंगे को जला कर सर में जो लगी शम्अ' के तलवे में बुझी है मिट जाएगा हर आदम-ए-ख़ाकी का मुरक़्क़ा' तस्वीर-ए-गिली जो है बिगड़ने को बनी है रोने को मैं हूँ बारिश-ए-बाराँ के मुक़ाबिल आँसू जो थमे दीदा-ए-पुर-नम तो हँसी है जी जाऊँ कि मर जाऊँ मैं इस नाला-कशी से नथनों में है दम नय की तरह नाक में जी है टपकें हवसें क्यूँ न पसीने से हमारे हर रौंगटे से ख़्वाहिश-ए-दिल फूट बही है सीने पे धरे हाथ न मुझ सोख़्ता-जाँ के पहलू में कलेजे की जगह आग दबी है क़ाज़ी का इरादा है कि है मय का मुचल्का तौबा दर-ए-मय-ख़ाना पे देने को ढही है अब 'शाद' ग़ज़ल और कहो क़ैद-ए-रवी में इस के तो सब अबयात में ईता-ए-जली है