ख़ामी-ए-इश्क़ है इज़्हार-ए-तमन्ना करना ऐ दिल-ए-ज़ार न भूले से भी ऐसा करना बन पड़े कुछ न मोहब्बत में अगर ऐ दिल-ए-ज़ार तुझ को लाज़िम है असर आह में पैदा करना अब ब-जुज़ इस के नहीं और कोई शग़्ल पसंद आ गया जब से उन्हें ख़ून-ए-तमन्ना करना तुम जो चाहो तो करम आज भी हो सकता है कुछ ज़रूरी तो नहीं वा'दा-ए-फ़र्दा करना हम ने घर जलते हुए देखे हैं इस की लौ से इश्क़ की शम्अ' से दिल में न उजाला करना एक दो सज्दे में कुछ माँग ख़ुदा से ज़ाहिद ज़ेब देता नहीं हर रोज़ तक़ाज़ा करना इक तरफ़ इश्क़ पे इल्ज़ाम ज़माने भर के इक तरफ़ शर्त ये रख दी कि न लब वा करना देख ऐ हुस्न भरम इस का है क़ाएम हम से हर किसी से न कहें वा'दा-ए-फ़र्दा करना ये भी कम-माएगी-ए-ज़र्फ़ है आख़िर 'साहिर' राज़ मयख़ाने का हर बज़्म में रुस्वा करना