किन उजलतों से अपनी जवानी गुज़र गई

किन उजलतों से अपनी जवानी गुज़र गई
आँधी सी इक उठी इधर आई उधर गई

दुनिया के हादसों ने बिगाड़े हज़ार काम
इतना हुआ कि अपनी तबीअत सँवर गई

बे-वज्ह ये सुकून मयस्सर नहीं मुझे
तुम आ गए तो गर्दिश-ए-दौराँ ठहर गई

होता है मस्लहत की बिना पर हर इंक़लाब
आई सहर जो बज़्म से शम-ए-सहर गई

पाया जिसे रफ़ीक़-ए-अमल हर गुनाह में
हैराँ हूँ मैं कि अब वो जवानी किधर गई

हूँ ख़ामी-ए-मज़ाक़-ए-तमन्ना से शर्मसार
आया नज़र न कुछ भी जहाँ तक नज़र गई

पाबंदी-ए-क़ुयूद-ए-मोहब्बत के बावजूद
सौ बार तुझ को ढूँडने मेरी नज़र गई

ऐ गर्दिश-ए-मुदाम सँभलने भी दे मुझे
अब तो किसी की याद भी दिल से उतर गई

'साहिर' ये क़ौल हज़रत-ए-ग़ालिब का है बजा
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई


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