ख़मोश रह कर पुकारती है वो आँख कितनी शरारती है है चाँदनी सा मिज़ाज उस का समुंदरों को उभारती है मैं बादलों में घिरा जज़ीरा वो मुझ में सावन गुज़ारती है कि जैसे मैं उस को चाहता हूँ कुछ ऐसे ख़ुद को सँवारती है ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर वो बारिशों को उतारती है