ख़ून की हर बूँद पत्थर हो चुकी ज़िंदगी ख़तरे से बाहर हो चुकी आँधियों की ज़द पे ऐ रेग-ए-रवाँ बे-घरी तेरा मुक़द्दर हो चुकी मैं निकल आया हिसार-ए-जिस्म से सर्द जब शो'लों की चादर हो चुकी एहतियातों से भी कुछ हासिल नहीं अब तो ये मिट्टी भी बंजर हो चुकी साया-ए-अक्स-ए-नवा भी मिट गया धूप भी मुट्ठी बराबर हो चुकी